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अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था


अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था

तिरी जबीं से निकलता हुआ सवेरा था


पहुँच सका न मैं बर-वक़्त अपनी मंज़िल पर

कि रास्ते में मुझे रहबरों ने घेरा था


तिरी निगाह ने थोड़ी सी रौशनी कर दी

वगर्ना अर्सा-ए-कौनैन में अँधेरा था


ये काएनात और इतनी शराब-आलूदा

किसी ने अपना ख़ुमार-ए-नज़र बिखेरा था


सितारे करते हैं अब उस गली के गिर्द तवाफ़

जहाँ 'अदम' मिरे महबूब का बसेरा था 

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1 Comments

Babita patel

24-Apr-2023 01:34 PM

nice

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